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आकाश संकेत

मनोज दास

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5500
आईएसबीएन :81-7315-671-9

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‘आकाश-संकेत’ वर्तमान समाज की विद्रूपताओं, उठा-पटक, आम आदमी की दयनीयता तथा सफेदपोश समाज के काले कारनामों का पर्दाफाश करता है।

Aakash Sanket a hindi book by Manoj Das - आकाश संकेत - मनोज दास

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘चलिए, अब आप मेरे दूसरे सवाल का जवाब दीजिए। आपके बकरे का नाम क्या था ?’’
‘‘जी ?’’
‘‘देखिए, यहाँ जितने भाई खड़े हैं, उन सबने अपने-अपने पालतू जानवरों को कुछ-न-कुछ नाम दिया होगा। है न ? उदाहरण के तौर पर....’’
एक ग्रामीण जो हर बात को मजाक के तौर पे उड़ाने में माहिर था, झट से बोला, ‘‘मैं अपनी बिल्ली को महारानी कहकर पुकारता हूँ और अपने बैल की जोड़ी को ‘दुधिया’ और ‘लकदक’ !’’

‘‘यह हुई न बात ! अब छाकू भाई, तुम भी अपने प्यारे, तुम भी अपने प्यारे दिवंगत बकरे का नाम बताओ। यह तो बहुत बढ़िया होना चाहिए।’’
छाकू की गरदन लटग गई।

‘‘तुम इससे कितना प्यार करते थे-यह तो अब साफ हो ही गया है। दूसरे, क्या हमें यह बताने की कृपा करोगे कि कल तुमने अपने इस अति विशिष्ट बकरे को क्या खिलाया था ?’’
छाकू के हाथ-पाँव फूले दिख रहे थे।
‘‘पनीर का केक ? पुलाव ? प्लेट भरकर रसगुल्ले ? आखिरी चीज तुमने क्या खिलाई थी ? बताओ जरा ?’’
भीड़ में खड़े कुछ ज्यादा होशियार लोगों को लगा कि इस बात पर थोड़ा हँस देना चाहिए और उन्होंने वैसा ही किया।
इसी उपन्यास से


मनोज दास ऐसे लेखक हैं जो पाठक का मनोरंजन करते हुए हँसा या रुला सकते हैं, प्रसन्न या उदास कर सकते हैं। ऐसी ही विशेषताओं से संपन्न प्रस्तुत उपन्यास ‘आकाश-संकेत’ वर्तमान समाज की विद्रूपताओं, उठा-पटक, आम आदमी की दयनीयता तथा सफेदपोश समाज के काले कारनामों का पर्दाफाश करता है।

आकाश-संकेत

एकाएक हाथ-पाँव फूलने से जैसे क्षणांश में उलटी-सीधी हरकतें होने लगती हैं-या यों कहें कि किसी देवी शक्ति को सूझे मजाक से यह प्रेरित हुआ हो, लेकिन परिणाम यह हुआ कि मैं नए रूप में अवतरित हो गया। मैंने इसकी कभी कल्पना तक नहीं की थी, न ही मुझे यह विश्वसनीय लगता है। इसका बहुत बाद में ज्ञात हुआ कि विश्वसनीयता की अवस्था कितनी सापेक्ष है, जिसका दरोमदार एक विशेष समय में व्यक्ति की मनोदशा पर रहता है। उदाहरणार्थ, एक बार अपनी बौखलाहट के क्षण में-क्योंकि उसका टेलीफोन तीन दिन से गूँगा-बहरा हो रहा था-मेरे भूतपूर्व आका, शर्माजी, ने गर्जना करते हुए जब कहा कि वह पृथ्वी को सॉकर-वॉल की मानिंद ऐसा किक लगाएँगे कि वह अंतरिक्ष से परे जा गिरेगी, तो मैंने तुरंत अपनी आँखें बंद कर ली थीं और फिर मुझे लगने लगा था कि उनका आकार बढ़ते-बढ़ते दैत्य के समान हो गया है और उनके नैन-नक्श बुरी तरह बिगड़कर बेढ़गे हो गए हैं तथा पृथ्वी भी सिकुड़कर इतनी छोटी हो गई है कि उसे आसानी से किक लगाई जा सकती है। उनका प्रस्ताव थोड़ी देर के लिए मुझे विश्वासनीय ही लगा था, पर साथ ही मैं सोचने लगा था कि क्या अंतरिक्ष के परे भी कोई अंतरिक्ष होता है।

‘‘बैठ जाओ !’’ जयंत ठाकुर ने फाइलों और विभिन्न प्रकार के कागजत से लदी मेज से अपना सिर उठाने की पूरी कोशिश करते हुए कहा। इस मेज पर फाइलों के अलावा स्टेशनरी का दूसरा सामान तथा अलग-अलग आकार की आधा दर्जन बोतलें भी पड़ी थीं। शायद उनके यहाँ के उत्पादन के नमूने थे। उन्होंने अपने चश्मे को ठीक किया और मेरी ओर देखे बिना आत्मलाप करने के अंदाज में वह कुछ बड़बड़ाए, लेकिन साथ ही अपनी कलम से इशारा करते हुए फिर बोले, ‘‘बैठ जाइए भाई ! कृपा कीजिए।’’

मैं थोड़ी पसोपेश में था। मेज के इस तरफ यहाँ मैं खड़ा था, कोई कुरसी न थी। बाद में मुझे पता चला कि उसी कि उसी सुबह उन्होंने आदेश दिया था कि क्यों नहीं आने-जानेवालों के लिए एवं प्रार्थियों और अधीनस्थ कर्मचारियों के लिए कुरसियाँ हटा ली जाएँ, क्योंकि एक बार जब वे बैठ जाते हैं तो उठने का नाम ही नहीं लेते, यानी जो बात डेढ़ मिनट में खत्म होनी चाहिए, उसके लिए वे दो मिनट ले लेते हैं। वैसे उस खुले शानदार कमरे के एक कोने में, लकदक करते सोफों का जमघट था, जिन्हें कॉफी रंग की कम ऊँचाईवाली मेज के चारों ओर लगा दिया गया था। वह इत्र क्रिस्टल जैसे किसी पदार्थ से तैयार किया गया था। मेज के मध्य में एक नग्न परी की प्रतिमा रखी थी, जिसके पोर-पोर से कामुकता टपक रही थी लगता था कि तुरंत अपने पर फड़फड़ाकर उड़ जाएगी।  

मैं गेट के बाहर तीन घंटे तक मँडराता रहा था। दरबान यह जानना चाहता था, और यदि नहीं किया तो मेरे पास अपना परिचय-पत्र तो होगा ही, ताकि उसे ठाकुर साहब की सेक्रेटरी के सामने रखा जा सके। पर मेरे पास तो कुछ भी नहीं था। दुर्भाग्यवश मेरी उस दिन की शुरुआत ही गलत हुई थी।  मैं सब्र का घूँट पीकर वहाँ से हटना चाहता था। दरअसल मैं बुरी तरह थक चुका था, क्योंकि तपती दोपहर में मैं तीन किलोमीटर चल कर आया था, जबकि मेरे  सैंडल में भी ऐसी कील निकल आई थी जो मेरे पाँव में एक-एक कदम पर चुभ रही थी। वह मुझे दिखाई भी नहीं देती थी और ठाकुर साहब की हवेली तक पहुँचते-पहुँचते मुझे जो नुकसान उठाना पड़ा था, उसका तो हिसाब ही नहीं लगाया जा सकता। उस समय तो ऐसा ही लगा था। मैं दरअसल, छिन्न-भिन्न हो रहा था। मैंने मुख्य सड़क की भीड़-भाड़वाली पटरी पर, एक छाजन के नीचे साइकिल खड़ी की। उसे ताला लगाया और पास की एक गली में एक दुकान पर चाय पीने चला गया। वापस आकर जब मैंने साइकिल का ताला खोला तो याद आया कि पर्स तो मैं वहीं छोड़ आया हूँ। मुझे उम्मीद थी कि पर्स मुझे वहीं उसी टूटी मेज पर मिल जाएगा, जहाँ मैं बैठा था। पर्स का रंग भी तो उसी मेज की तरह था। बिल्कुल बेआब मटमैला, जैसे किसी भिखारी का चिथड़ा हो। उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाना चाहिए था।

मैं दौड़कर वापस दुकान पहुँचा और उसे हर जगह-मेज के ऊपर, नीचे तथा उसके चारों ओर ढूँढने लगा। वह कहीं नहीं था।, दुकान का मालिक, उसका सहायक तथा वहाँ बैठे ग्राहक, सब मुझे टुकर-टुकर देखने लगे। उनकी आँखों में उत्सुकता तो थी ही किंतु उन्हें आनंद भी आ रहा था। यह कुछ ऐसा उन्मेश था जिस पर किसी का नियन्त्रण नहीं होता।
‘‘कुछ गुम गया है ?’’ उनमें से एक ने थोड़ा हिचक लेते हुए तथा खाँसते हुए पूछा।
‘‘ क्या बहुत कीमती था ? वाकई कीमती था।’’ एक दूसरे ने प्रश्न किया।
‘‘मेरा पर्स था।’’

उनकी आँखें कुछ-एक-क्षणों के लिए बड़ी सक्रिय हो गईं। ‘‘मेरी सलाह मानो, ‘‘दुकानदार कह उठा, ‘‘कहीं और ढूँढ़ो उसे। अगर अलादीन अपना चिराग यहाँ भूल जाता या इंग्लैंड की महारानी अपना कोहिनूर भी भूल जाती तो वह भी कहीं न जाता।’’ उसकी आवाज में संजीदगी थी। ‘‘मेरे कर्मचारी महात्मा हैं।’’ और उसने अपने एकमात्र सहायक, एक तेरह-चौदह वर्ष के बालक की ओर देखते हुए कहा। बालक एक मैला-कुचैला जाँघिया तथा फटी हुई बनियान पहने था। मालिक की प्रशंसा का उसपर कोई असर नहीं हुआ।

मैंनें अपनी खोज बंद कर दी। मेरे पास पर्स में मात्र पाँच रुपए थे। एक रुपए चालीस पैसे के सिक्के भी थे, जो पर्स के सुराख में से ज़ेब में आ गए थे। मैंने सुराख के प्रति कृतज्ञता का भाव जताया।
फिर मुझे खयाल आया कि मैंने साइकिल को तो बिना ताला लगाए छोड़ दिया है। मैंने फिर दौड़ लगाई और उस प्रक्रिया में एक महिला से जा टकराया। महिला कठफोड़े की तरह चुस्त-दुरुस्त थी। वह उसी समय हेयर ड्रेसर की दुकान से निकली थी।
‘‘क्षमा करना, माँ...’’
‘‘हरामी !’’ वह बड़बड़ाई
‘‘मारे झेंप के मेरी चाल धीमी पड़ गई।

‘‘जरा एक मिनट !’’ पास की गली से आता हुआ एक मूँगफलीवाला बोला, ‘‘अगर तुम हरामी हो और वह तुम्हारी माँ है तो उसे पता होना चाहिए कि कौन शैतान तुम्हारा बाप है। तुम उससे पूछते क्यों नहीं ?’’
महिला रोष भरी हमारी ओर मुड़ी। मेरा खयाल है कि वे दोनों काफी गरम बहस करते हुए आपस में भिड़ गए थे। मैं चलता ही गया और पटरी पर पहुँच गया। पर मेरी साइकिल का भी वही हश्र हुआ जो मेरे पर्स का हुआ था।
‘‘क्या आपने मेरी साइकिल देखी है ?’’ मैंने कइयों से पूछा। उनमें जूता-पॉलिश करनेवाला लड़का, पत्रिकाएँ बेचनेवाला एक दड़ियल व्यक्ति तथा अन्य लोग शामिल थे। उनमें से कुछ तो अपने से मतलब न रखनेवाले प्रश्नों को झेलने में सिद्धहस्त हो गये थे, और कुछ मेरी चिंता व हताशा में इस ओर देख रहे थे।

‘‘एक साइकिल ? काफी खस्ताहाल था ? है न ? मुझे ठीक से याद तो नहीं आ रहा, पर कोई उस पर पैडल मारता चलता बना। वह काफी कुछ तुम्हारी तरह ही तो दिख रहा था।’’ जुर्राबें और बैल्ट बेचनेवाले एक हॉकर ने कहा। उसकी आवाज में पूरी निस्संगता थी।
‘‘मेरे जैसा ही दिखाता था ! हे ईश्वर ! लेकिन उसे चोर नहीं कहेंगे। क्या आप बता सकते हैं कि किस दिशा में गया है ?’’

‘‘क्या फायदा होगा ?’’ पत्रिकाएँ बेचनेवाले व्यक्ति ने कहा।
‘‘क्या मुझे चोर को पकड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए ?’’
‘‘क्या तुम्हारे पाँव में घोड़े की नाल लगी है ?’’
‘‘पर क्या आपने चोर को देखा है ?’’
‘‘मुझे क्या पड़ी ?’’

‘‘वाह रे ईश्वर ! कम-से-कम यह तो बताएँ कि क्या आपने मेरी साइकिल देखी थी ?’’
‘‘क्या देखने को मेरे लिए और कुछ नहीं रहा ?’’
मन हो रहा था कि उसकी दाढ़ी पकड़ लूँ और उसे खींचते हुए उससे कहूँ, ‘तब क्यों, तब क्यों...?’
मैंने अपना पसीना पोंछा और स्वयं को शांत करने की कोशिश की। पर उस व्यक्ति में इतना समझने  की अक्ल तो थी कि बिना घोड़े की नाल लगवाए कोई साइकिल सवार को कैसे पकड़ेगा ! वैसे भी मेरे देखने में आया था कई अक्लमंद व्यक्तियों की अक्ल प्रस्फुटित होने के लिए छटपटाती है और यह पत्रिकाएँ बेचनेवाला भी अपवाद नहीं था। मेरे प्रश्न से तो यही लगता था कि मैं उससे यही उम्मीद रखता था कि मेरी साइकिल को देखता रहे, किंतु इससे उसके अहं को धक्का लगा था। ऐसी अपेक्षा करना क्या मेरी सरासर बेवकूफी न थी ? विशेषकर ऐसे व्यक्ति से, जिसके सामने ढेरों ऐसी पत्रिकाएँ बिखरी पड़ी हों जिनके चमचमाते आवरणों से न्यूनतम वस्त्रोंवाली सुंदरियाँ उसपर मुसकरा रही हों। तब क्या वह उस सड़ियल साइकिल पर नजर रखता ?

और मेरे भीतर वह क्या था-मेरा सड़ियल अहं ही था न जिसे उसकी दाढ़ी से बदला चुकाने की उतावली  हो रही थी। और मेरी साइकिल ने जो मुझे जाते-जाते पाठ पढ़ाया था, उससे मुझे संतुष्ट होना चाहिए। पाठ यह था कि मैं भी अहं का मारा वैसा ही प्राणी था जैसे मेरे चारों ओर आदमी का चेहरा लगाए वे तमाम बंदर थे। ऐसे बचकाने क्रोध भरे विचार से कुछ तसल्ली तो मिल रही थी।  

कौन जानता है कि हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा ? मेरे गुरु, नटवर सर, यह प्रश्न किसी खास व्यक्ति से नहीं पूछते थे और एक कहानी कह डालते थे-‘एक संपन्न बूढ़े किसान का घोड़ा पास के खेतों से लगे जंगल में खो गया। ‘बहुत बुरा हुआ।’ सभी पड़ोसियों ने टिप्पणी की। लेकिन बूढ़े किसान ने केवल इतना भर कहा, ‘कौन जाने !’ दो दिन बाद खोया हुआ घोड़ा लौट आया। साथ में उसके जीवन-साथी एक जंगली घोड़ी भी थी। पड़ोसियों ने फिर कहा, ‘बहुत बुरा हुआ।’’ कौन जाने !’ बूढे किसान ने अपना वाक्य दोहराया। वे सब हैरान थे। घोड़ी को सधाते समय किसान का बेटा उसकी पीठ से नीचे गिर पड़ा और चोट खा गया। ‘बहुत बुरा हुआ’ शुभचिंतक बोल उठे, पर बूढ़ा अपने उन्हीं शब्दों की रट लगाए रहा, ‘कौन जाने !’ ‘बकवास !’ उन लोगों के मुँह से निकल गया। एक हफ्ता बीत गया। जंग शुरू हो गई। राजा के सलाहकारों ने गाँव के सभी युवकों को सेना में भरती करने के लिए घेर लिया। केवल किसान के बेटे को ही उसकी चोट के कारण छोड़ दिया गया। अब गाँववालों को किसान की बुद्धिमत्ता समझ में आने लगी थी।’

निस्संदेह, मुझे भी बाद में एहसास हुआ कि यदि मैं अपनी साइकिल खो देने के बाद पैदल न आया होता। हालाँकि मैं इससे बेहद थक गया था, तो जैसे ही चौकीदार ने मुझे वहाँ से रफा –दफा होने को कहा था, मैं वहाँ से चल दिया होता। साथ ही मेरी यह हिम्मत न होती कि बिना साइकिल के मैं शर्माजी के घर से पैदल चलकर यहाँ, दस किलोमीटर की दूरी तय करके, ठाकुर साहब से मिलने आता।
अफसोस, वे दिन लद गए थे जब मैं शर्माजी की कार में उनके ड्राइवर के साथ बैठकर शर्माजी के मुख्यमंत्री बनने पर ऊँचा आसन पाने के सपने देखता।

कुछ बुद्धिमान् लोगों ने यों कहा था-‘इत्तफाक ईश्वर का वह उपनाम था। जिसे वह तब प्रयोग में लाता था जब वह अपने हस्ताक्षर नहीं करना चाहता था। इत्तफाक मेरे लिए महिलाओं के प्रदर्शन के रूप में आया। वे अपनी मुट्ठियाँ ऐसे भाँज रही थीं जैसे हवा में कील गाड़ रही हों। साथ में ही उन्हीं पंक्तियों को दोहराती गान करती सी नारे उछाले जा रही थीं। इससे चौकीदार का ध्यान पूरी तरह बँट गया था, जयंत ठाकुर का स्टेनोग्राफर भी, जो उसके कमरे की ओर जानेवाले गलियारे में बैठता था, गेट से ऐसे फिसलकर बाहर हो गया जैसे कि पिकनातीस से लोहे का हलका सा टुकड़ा खींचा जाता है। उसकी आँखें यदि उस समय अपने गह्वरों से बाहर कूद पड़तीं और प्रदर्शनकारियों में से किसी से चिपक जातीं, तो मुझे यह एक छोटा-मोटा करिश्मा ही लगता।
मेरे जीवन का यह महत्वपूर्ण क्षण था- मैं इसे महत्वपूर्ण ही कहूँगा-
जब मैंने अपने पसोपेश पर काबू पा लिया और जयंत ठाकुर के कमरे में दाखिल हो गया। कमरे में अजंता के चित्रों की कई अनुकृतियाँ थीं। बुद्ध का चेहरा था ध्यानमुद्रा में था। वह ठाकुर के सिर के ऊपर लंबवत् दीवार पर जड़ा हुआ था। उसकी आँखें आधी बंद थीं और ठाकुर पर अनुकंपा का भाव टपका रही थीं। इससे मेरे भीतर यह उम्मीद जगी कि ठाकुर साहब मेरे प्रति कृपाभाव दिखाएँगे।

 लेकिन साथ-साथ शंकाएँ भी मच्छरों के झुंड की तरह मुझे सताने लगीं। क्या ठाकुर को मेरी याद होगी ? उसने केवल एक बार मुझे मेरे स्वर्गीय बॉस शोकसिल शर्माजी के साथ देखा था। जब शर्माजी ने हमेशा की तरह अपने निस्संग भाव से ठाकुर से मिला मोटे कागज से बना लिफाफा मेरी ओर बढ़ा दिया था, तब उनकी आँखें मेरे महत्त्व को स्वीकारती हुई मेरी ओर उठी थीं। मुझे यह आश्वस्ति भी हो गई कि उन्होंने मेरे चेहरे पर गौर किया है। लिफाफे में कड़-कड़ करते नोटों की गड्डी थी। ठाकुर को यकीनन पता चल गया होगा कि मैं नेताजी का विश्वासपात्र हूँ, क्योंकि उसने अपनी मधुर मुसकान का एक अंश मेरी ओर भी आने दिया।  

शर्माजी से कई करोड़पति लोग मिलने आते थे। उनसे मेरी भेंट भी होती थी। मुझे लगता था कि उनमें कुछ ठीक उसी अनुपात में मुसकराते थे जितना उन्हें दिन में लाभ हुआ था और कुछ की मुसकान में तो उनकी कंजूसी की झलक भी बाहर आ जाती थी। लेकिन जयंत ठकुर, जिसका शराब तथा उसे जुड़े उद्योगों से बड़ा नाम था, बाकी लोगों से बिल्कुल भिन्न था। जितनी बार वह मुसकराता था, लगता था उसने कॉफी के घूँट की गरमाहट है।
‘‘बैठ जाओ !’’ उसने एक बार फिर कहा। साथ ही उसने मुझ पर उड़ती दृष्टि भी डाली। लेकिन मेरा खयाल है उसकी आँखें मात्र इतना ही देख पाईं कि उसके सामने कोई जीवित प्राणी है- आदमी या कुछ और। साफ ही था कि उसे इस बात की बिल्कुल याद नहीं।

फिर लंबी आवाज निकालते हुए बोला, ‘‘मेरा खयाल  है कि तुम दोपहर से पहले नहीं आओगे।’’
इससे पहले मैं उसे यह बताने का निर्णय कर पाऊँ कि मैं वह नहीं हूँ जिसकी उसे अपेक्षा थी, वह बोला, ‘‘अगर गलत न समझो तो मुझे अपनी माली हालत का विवरण दोगे ? यह  कहने की जरूरत नहीं कि मैं इसे अत्यंत गोपनीय रखूँगा यह तो समझ ही रहे हो कि तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार करने के लिए यह कितना जरूरी है।’’
दरअसल, ठीक यही प्रश्न मुझे कुछ क्षण पूर्व सूझा था। उस समय मैं पटरी पर टहल रहा था। जो जवाब मैंने सोचा था, चाहे वह मेरे निजी उपयोग के लिए ही था, मेरी जबान की नोक पर था। मैं उत्तर देने को उत्सुक था, पर मैं यह भूल गया था कि वह मेरी माली हालत का ब्योरा लेकर क्या करेगा ?

‘‘हाँ।’’ उसने मुझे बोलने के लिए उकसाया, हालाँकि उसका ध्यान कहीं और था।
‘‘एक रुपया चालीस पैसे, जनाब, इतनी ही जमा-पूँजी मेरी-जेब में है और हुजूर, सूचनार्थ में मेरी जेब ही मेरा एकमात्र खजाना है। पर हुजूर, सुबह के ग्यारह तो बज चुके हैं। बस दस घंटे की ही तो बात है। यदि आपकी कृपा होगी तो मुझे करोड़पति, अरबपति बनते देर नहीं लगेगी। बस, आपकी कृपा चाहिए।’’
‘‘तुम्हारी बात ठीक से समझ में नहीं आई।’’ यह कहकर ठाकुर अपने कागजात पर दृष्टिपात करता रहा। पर उसके कान तो पूरी तरह मेरे कब्जे में थे। उसकी आवाज में उत्सुकता और साथ ही बेचैनी भी थी।
मैं अपना गला साफ करते हुए आगे बोला-

‘‘तो सुनिए, यह इस प्रकार है। अगले दस या ग्यारह घंटों में, जब रात होगी और मैं सोने जाऊँगा, तो मैं दूसरी तरफ की विचार-श्रृंखला में प्रवेश कर जाऊँगा। वह मेरी निजी होगी। उसमें किसी और का कोई लेना-देना नहीं होगा। जब तक मैं सोया रहूँगा, मेरे लिए यह बिल्कुल महत्त्व नहीं रखेगा कि मेरे पास एक रुपया चालीस पैसे हैं या एक सौ चालीस खरब रुपए, डॉलर या पाउंड। मैं उस रकम में से कुछ भी खर्च नहीं करूँगा। क्या मुझे यह बताने की जरूरत है कि सपनों में विचरण करते समय किसी भी प्रकार के सौदे के लिए हमें नगदी की जरूरत पड़ती है, न चैकों की, न ही अन्य कागजात की। श्रीमान, जब मैं सोया होता हूँ तो कल्पना करता हूँ कि बंबई से जिनेवा तक के बैंकों में पड़ी दौलत मेरी है। कभी-कभी दूसरी तरह से सोचता हूँ कि तमाम दुनिया में जितनी भी सोने और हीरे-जवाहरात की खदानें हैं, वे सब मेरी हैं।’’
जयंत ठाकुर मेरी ओर टकटकी लगाकर देखने लगा।

मैंने गहरी साँस ली और गंभीर बने हुए अपनी बात रखी-‘‘जनाब, मुझे यह विचार बिल्कुल बुरा नहीं लगता कि दिन-रात के एक ही क्रम में हम लगभग आठ घंटो के लिए लगतार अकूत संपत्ति के मालिक बन जाएँ। अगर मैं नब्बे वर्षों तक जिंदा रहूँ तो इसका अर्थ यह हुआ कि तीस वर्षों तक मेरा वैभव बिना किसी रोक-टोक के बढ़ता ही रहेगा। दूसरे शब्दों में, इतने समय तक कई व्यापारिक साम्राज्यों ने भी भाग्य की इतनी ऊँची उछाल नहीं देखी होगी। ’’
जयंत ठाकुर ने अपनी कलम नीचे रखी और निगाह ऊपर की ओर उठाई और साथ ही मुझे फिर मामूली सा इशारा किया कि मैं बैठ जाऊँ। अब अगर मैं उसका ध्यान इस बात की ओर दिलाऊँ कि कमरे में कोई कुरसी है ही नहीं, तो इसका मतलब यह होता कि मैं उसे उसकी गलती का अहसास करा रहा हूँ। और मेरे जैसे प्रार्थी के लिए पहली ही भेंट में ऐसे व्यक्ति को यह जताना, जो मेरा भला भी कर सकता है, बिलकुल अकलमंदी का काम न होगा। इसके विपरीत, यदि मैं खड़ा ही रहता, तब भी उसके आदेश की अवमानना होगी। जरूरी यही था कि मैं उसे किसी तरह खुश करूँ या और नहीं इतने बडे़ मद्य-सामंत की चूक को रेखांकति करूँ।

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